क्या सुप्रीम कोर्ट निष्पक्षता से परे जा चुका है?


 सुप्रीम कोर्ट के हाल के फ़ैसलों से ये संदेश गया है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट सेक्युलर संविधान का हिस्सा है लेकिन धर्म के आधार पर भेदभाव को ख़ुद ही नहीं रोक पा रहा है।

         एनआरसी, धर्म के आधार पर नागरिकता यानी सीएए, आस्था के आधार पर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का फ़ैसला, जामिया मामले में हस्तक्षेप से इनकार और सबरीमाला मामले में अपने ही फ़ैसले को लागू नहीं करवा पाने जैसे कई वाक़ये हैं जिनसे कोर्ट की साख दांव पर लगी है। 

        अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी किए जाने पर अदालत में इसे प्राथमिकता नहीं मिली, कश्मीर में इंटरनेट बंदी पर भी कुछ ठोस निर्णय नहीं लिया गया, अर्णब गोस्वामी की जमानत लेकिन अन्य पत्रकारों के लिए कोई कदम नहीं उठाया, कश्मीर में जिन्हें बंद करके रखा गया है उस पर भी कोर्ट ने कुछ नहीं किया।

         हालांकि इसका दूसरा पक्ष भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में सहमति और असहमति दोनों का महत्वपूर्ण स्थान है।और सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी सीमाएं हैं लेकिन फिर भी और बेहतर की उम्मीद तो की ही जा सकती है विशेषकर सरकार द्वारा मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में जिनका संविधान ने उसे संरक्षक बनाया है।

     लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट पर लोग भरोसा करते हैं क्योंकि वह लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभों में से एक है और सीमाओं के तहत अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं।

     

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट